Saturday 22 August 2015

मेरी प्राथमिक शिक्षा एक छोटे से गाँव के स्कूल में हुई है | स्कूल कि दीवार पर नील से लिखी दो पंक्तियाँ मुझे आज भी याद है :और उन्हीं पंक्तियों ने एक छात्र के रूप में हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है


राजा अरु विद्यार्थि ,जो माने संतोष|
 बढे नहीं नित नित घटे, धन विद्या का कोष || 

सन्देश बहुत स्पष्ट है ,यदि कोइ राजा या विद्यार्थी  अपनी स्थिति पर संतुष्ट हो जाता है तो राजा का धन ,प्रभुता और विद्यार्थी का विद्या का खजाना नित्यप्रति कम होने लगता है.

एक विद्यार्थी के रूप मुझे पता चला ; जो मै जान गया हूँ वह अंत नहीं प्रारम्भ है , केवल पढ़ने से/ अनुशरण से  काम नहीं बनाते ज्ञान के साथ प्रयत्न पूर्वक किया अभ्यास अधिक महत्वपूर्ण  है|

हम यदि मान लेता है   हमें  लिखना, पढ़ना, समझाना सब  आता है तो हम शायद भूल ही करते है,  हमसे श्रेष्ट  लोग हमें हमेशा मिलेंगे और हम अपनी  कमी किसी बहाने से न्यायोचित ठहराते रहेंगे . यदि हम अपने कौशल  को प्रयत्न पूर्वक सुधारते है तो हम सुन्दर,सुलेख , त्रुटिहीन ,और तीव्र गति से लिखने की क्षमता हासिल करा पाएंगे , तेजी से पढ़ने, समझाने, याद रखने  का गुण अपने में विकासित करापएंगे और श्रेष्टता  कि ओर अग्रसर होगे .

हमें कुछ आता है यह महत्वपूर्ण  नहीं है , हमें अच्छे से आता है यही श्रेयकर है .

आशा है कि आप अपने कोष , खजाने को बढ़ाने में प्रयत्नशील रहेगे , सम्भावनाएं अनंत है , केवल हमें अपनी क्षमता  ही बढ़नी है 



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